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Sunday 15 July 2012

लापता




बातें करती थी जो वो नजर लापता
मेरे ख्वाबों से क्यों मेरा घर लापता।

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काली चादर तो ओढे रहे रात भर
अब जो आँखें खुली तो सहर लापता।

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अब भी देता है खत रोज कासिद मुझे
पर  सुकूँ  दे सके  वो  खबर लापता।

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एक मंजिल को पाने के सपने बुने
अब सफर में हूँ तो हमसफर लापता।

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बस जगहें बदल गयी हैं


चीज़ें सारी अभी भी हैं
बस जगहें बदल गयी हैं
पेड़ का सबसे हरा पत्ता अब डाली में नहीं है
और सूरज ढल गया है।

ज़ख्म नहीं भरा है
लेकिन खून का एक थक्का जम गया है
कुछ तस्वीरों और शब्दों ने भी
अपना-अपना नया जगह चुन लिया है
पुकार हवा में इतनी ज्यादा फैल गयी है
कि जैसे खो गयी हो।

कोई इतना बहरा हो गया है
कि अपनी चीख़ भी नहीं सुन पा रहा।

मुझे सब कुछ अज़ीब लग रहा है
क्योंकि मैं अब तक
अपनी जगह नहीं बदल पाया हूँ।






बादाम भाई....


बादाम भाई... बादाम भाई... बादाम भाई...
बादाम भाई... बादाम भाई... बादाम भाई...
टाइमपास......  टाइमपास......  टाइमपास....
बादाम भाई.... टाइमपास.... बादाम भाई...

आपमें तो धैर्य भी इतना नहीं
कि सुन सकें उसकी व्यथा को,
उसके रुदन को,
और उसकी दैनिक कथा को...
दस साल का भी है नहीं
पर टोकरी लटकी हुई
गर्दन से उसके,
टिकी है वह टोकरी
क्या सहारे पेट के
या सहारा पेट को देती हुई
वह टोकरी बादाम की...
नियति की तुला को लेकर
विवशता के बाट से
बचपन को अपने तौलता,
कॅंपकपाते हाथ से फिर
सौंपता समाज को,
कल को बचाने के लिए
वह बेच देता आज को...
पर नहीं अवकाश उसको
वह निरत व्यापार में
बादाम भाई... बादाम भाई...
रटता हुआ अविराम वह
प्लेटफार्म नं0- एक में
या नहीं तो चार में...
हमारे देश का भविष्य आज
व्यापारी वह बादाम का
भूखा ही थककर सो गया...
जैसे इस निर्दोष का बचपन
इन्हीं बादाम के छिलकों में
फॅंसकर खो गया....।
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