« »

Thursday 11 October 2012

फिर से


हँसते-हँसते पलकें मेरी गुस्ताखी कर आई फिर से
दिल पर तो रक्खा था पत्थर पर आँखें भर आई फिर से ।

जब-जब मैंने दूर कहीं से पायल की आवाज़ सुनी
भीतर -भीतर सिहर-सिहर तब गूँज उठी शहनाई फिर से ।

याद नहीं मैं रात ख़्वाब में किस महफिल में शामिल था
नींद खुली बेचैन हुआ दिल सिसक उठी तनहाई फिर से ।

धूप- छाँव के खेल मे ऐसा होगा ये मालूम न था
शाम ढले सब अपने छूटे चीख उठी परछाई फिर से ।

ढलते चाँद को तन्हा पाकर रात भी कुछ रंजूर हुई
वक़्त ने ऐसा करवट बदला दर्द ने ली अंगड़ाई फिर से ।

थककर बैठ गई तो उसने कहना मेरा मान लिया
रोना हँसना छूट गया सब अब आँखें पथराई फिर से