बादाम भाई... बादाम भाई... बादाम
भाई...
बादाम भाई... बादाम भाई... बादाम
भाई...
टाइमपास...... टाइमपास......
टाइमपास....
बादाम भाई.... टाइमपास.... बादाम
भाई...
आपमें तो धैर्य भी इतना
नहीं
कि सुन सकें उसकी व्यथा को,
उसके रुदन को,
और उसकी दैनिक कथा को...
दस साल का भी है नहीं
पर टोकरी लटकी हुई
गर्दन से उसके,
टिकी है वह टोकरी
क्या सहारे पेट के
या सहारा पेट को देती हुई
वह टोकरी बादाम की...
नियति की तुला को लेकर
विवशता के बाट से
बचपन को अपने तौलता,
कॅंपकपाते हाथ से फिर
सौंपता समाज को,
कल को बचाने के लिए
वह बेच देता आज को...
पर नहीं अवकाश उसको
वह निरत व्यापार में
बादाम भाई... बादाम भाई...
रटता हुआ अविराम वह
प्लेटफार्म नं0- एक में
या नहीं तो चार में...
हमारे देश का भविष्य आज
व्यापारी वह बादाम का
भूखा ही थककर सो गया...
जैसे इस निर्दोष का बचपन
इन्हीं बादाम के छिलकों में
फॅंसकर खो गया....।
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वाह! वाह!
ReplyDeleteबहुत मन से लिखा है। बहुत खूब।
हम बादाम खरीद कर चल देते हैं लेकिन कवि कैसे चला जाता?
वाह!
आभार शिव जी।
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