हँसते-हँसते
पलकें मेरी गुस्ताखी कर आई फिर से
दिल
पर तो रक्खा था पत्थर पर आँखें भर आई फिर से ।
जब-जब
मैंने दूर कहीं से पायल की आवाज़ सुनी
भीतर
-भीतर सिहर-सिहर तब गूँज उठी शहनाई फिर से ।
याद
नहीं मैं रात ख़्वाब में किस महफिल में शामिल था
नींद
खुली बेचैन हुआ दिल सिसक उठी तनहाई फिर से ।
धूप-
छाँव
के खेल मे ऐसा होगा ये मालूम न था
शाम
ढले सब अपने छूटे चीख उठी परछाई फिर से ।
ढलते
चाँद को तन्हा पाकर रात भी कुछ रंजूर हुई
वक़्त
ने ऐसा करवट बदला दर्द ने ली अंगड़ाई फिर से ।
थककर बैठ गई तो उसने कहना मेरा मान लिया
रोना हँसना छूट
गया सब अब आँखें पथराई फिर से ।
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