« »

Thursday 21 March 2013

... फिर मेरी गज़लें सुनना


एक काम मेरे यार करो फिर मेरी गज़लें सुनना
जाओ पहले प्यार करो फिर मेरी गज़लें सुनना।

अपने भीतर झाँको पहले अपने दिल पे दस्तक दो
खुद से आँखें चार करो फिर मेरी गज़लें सुनना ।

चुपके चुपके यूं ही कब तक आह भरोगे तुम कह दो
पहले तुम इज़हार करो फिर मेरी गजलें सुनना ।

अपना सारा तुम निसार कर खाली हाथ चले आओ
ऐसा कारोबार करो फिर मेरी गज़लें सुनना । 

होली


तुम जो आई आज शहर में हो गई होली
फिर से छाई नूर नज़र में हो गई होली ।

एक नशीली हवा चली है गली-गली में
चढ़ी है मस्ती कौन फिकर में हो गई होली ।

बिन बारिश के इंद्रधनुष है दिशा-दिशा में
आज फ़ज़ा है नये असर में हो गई होली ।

खुश पलाश है बात खास है क्या कहना
रंग चढ़ा है आज शज़र में हो गई होली ।

रंगीं आलम देख रहा है वक़्त की रंगअंदाज़ी
शाम घुल गई आज सहर में हो गई होली ।

Saturday 10 November 2012

कविता क्या है ?


कविता हृदय की अनुपम भाषा है,
कविता हृदय की अभिनव आशा है,
कविता जीवन की परिभाषा है।

कविता निर्मल-नव-प्रभात है,
कविता रात अंधेरी भी है,
कविता लाल महावर जैसी
कविता जुल्फ घनेरी भी है,
कविता मीठा कलरव है पर
कविता यह रणभेरी भी है।

कविता किसान की लहलहाती फसल है,
कविता कल्पना के सरोवर का एक सुंदर कमल है,
कविता दिल को सहलाने वाली बहुत मीठी ग़ज़ल है।

कविता मन के मरुद्यान की मृग-मरीचिका है,
कविता अंधेरे सूने मन की जलती दीपिका है,
कविता एक कवि की सच्ची प्रेमिका है।

कविता गर्मी की छुट्टियों का सैर-सपाटा है,
कविता अंतरतम का नित्य ज्वार-भाटा है,
कविता मरघट का सन्नाटा है।

कविता शब्द और संवेदना का योग है,
कविता सृजन के रूप मे दैविक संयोग है,
कविता अपने प्रियतम से अंतहीन वियोग है।

कविता नित्यक्रुद्ध कष्टकारी क्रूर काल है,
कविता सुख-दुख का बना हुआ महाजाल है,
कविता मृत्यु-जन्म-चक्र का अंतराल है।

कविता ओस से भीगी हुई फुनगियों की थिरकन है,
कविता पतझड़ के पत्ते का धीमा सा सिहरन है,
कविता जीने के बाद बची थोड़ी सी धड़कन है।



Wednesday 17 October 2012

भावांजलि

            
                               
1.
उनके आने की आहट से वक़्त ठहर जाता है
मन के भीतर एक अनोखा अक्स उतर आता है
फिर तो धड़कन रुनझुन-रुनझुन पायल सी बजती है
आशाएँ भी बेसुध होकर दुल्हन सी सजती है
उम्मीदें फिर पंखुड़ियों सी कोमल हो जाती है
पर जैसे ही खुलती पलकें ओझल हो जाती है ।

कर जाती मुझको दीवाना
नामुंकिन खुद को समझाना
लाख मना लूँ लेकिन साँसे
बोझल हो जाती है
उम्मीदें फिर पंखुड़ियों सी कोमल हो जाती है
पर जैसे ही खुलती पलकें ओझल हो जाती है ।




ना आकर भी उनका आना
फिर मेरे मन मे छा जाना
खामोशी से कुछ कह जाना
एक अज़ब सी अंदर अंदर
हलचल हो जाती है।
उम्मीदें फिर पंखुड़ियों सी कोमल हो जाती है
पर जैसे ही खुलती पलकें ओझल हो जाती है ।

यह जीवन काँटों का पलना
इससे तो बेहतर है जलना
उनके साथ अगर हो चलना
फिर तो पथरीली गलियाँ भी
मखमल हो जाती है।
उम्मीदें फिर पंखुड़ियों सी कोमल हो जाती है
पर जैसे ही खुलती पलकें ओझल हो जाती है ।

अब के तुम सचमुच आ जाओ
फिर मेरे मन मे छा जाओ
खामोशी से कुछ कह जाओ
ख्वाबों ही ख्वाबों मे साँसें
संदल हो जाती हैं
उम्मीदें फिर पंखुड़ियों सी कोमल हो जाती है
पर जैसे ही खुलती पलकें ओझल हो जाती है ।


2.
http://www.colourbox.com/preview/2547480-118422-sleeping-beautiful-woman-with-long-hair-stylized-vector-illustration.jpg

रूठ जाये नींद ना तेरी पलकों से

खेल भी सकता नहीं तेरी अलकों से

नाचता है मन कि जैसे मोर हो

चाहता हूँ मैं नहीं कि शोर हो

ढल चुके हैं रात के तीनों पहर

चाहता ये भी नहीं कि भोर हो

जग न जाओ तुम कहीं इससे डरूँ मैं

पाँव में घुंघरू बँधे हैं क्या करूँ मैं ?


मन ही मन में बज रहा संगीत भी

मौन होकर कैसे गाऊँ गीत भी

एक भी पल आज का खोने न दूँ

हो नहीं सकता तुझे सोने न दूँ

गोद में हो मेरे जब तक सिर तेरा

एक भी आहट कहीं होने न दूँ

रुक न जाये साँस ही इससे डरूँ मैं

पाँव में घुंघरू बँधे हैं क्या करूँ मैं ?


3.
कहा था एक दिन मैंने-
“चलो आज फिर वही खेल खेलते हैं
मैं तुम्हारी आँखों पर पट्टी बांध देता हूँ
और तुम मेरी आँखों पर बाँध देना
फिर घर के आँगन में ही दोनों
एक दूसरे को ढूँढते हैं
पर कोई आवाज़ नहीं
कोई इशारा भी नहीं
बस तुम मेरी धडकनों का पीछा करना
मैं तुम्हारी खूशबू का।”

बादल और बिजली भी आए उस रोज़
हमारा खेल देखने
जब जब मैं तुम्हारे
करीब से गुजर जाता बिना छूए
बिजली कड़कती
जैसे कहना चाहती हो कुछ
जब तुम मेरे पास आकर लौट जाती
तो बादल हँसता था
पता नहीं आज हमारा आँगन
इतना बड़ा कैसे हो गया था।

धीरज टूट रहा था मेरा
मैं खोलने ही वाला था पट्टी
कि तुम आकर लिपट गई मुझसे
झमाझम बारिश भी ऐसे शुरू हुई
जैसे इसी पल के लिए
रुकी हुई हो ।



4.

यूँ तो कभी रूठता नहीं था मैं
पर जब से तुम आई हो
अच्छा सा लगता है
रूठना भी कभी कभी।

मुझे मनाने के लिये
जब तुम गुनगुनाती हो
तब चूड़ियों की खन-खन
और पायलों की छन-छन भी
साज़ की तरह साथ देती हैं
तुम्हारी आवाज़ का।
ऐसे में अगर बार-बार
दिल करे रूठने का
तो गलत भी नहीं है

पर जब तुम रूठती हो मुझसे
तो जैसे सारा घर ही रूठ जाता है।

चूड़ियाँ तब भी खनकती हैं
पायलें तब भी छनकती हैं
लेकिन मैं उदासी का संगीत
पहचान लेता हूँ
और मेरा दम घुटने लगता है।

तुम्हें मनाने के लिए
मैं गुनगुनाता हूँ तुम्हारे ही गीत
लेकिन सुर भी साथ नहीं देते मेरा
फिर तुम ही उन बिखरे लफ़्ज़ों को
बाँधती हो लय में
और साज़ बज उठते हैं
एक बार फिर।
तुम भूल जाती हो
कि अभी अभी रूठी थी तुम
और मुझसे नज़रें मिला लेती हो।

मनाने रूठने के इस खेल में
कोई थकता भी नहीं
और कशिश है कि बढ़ती ही जाती है।
बस एक अंजाना सा डर बना रहता है
कि यह खेल
रुक न जाए कभी।
यह खेल बस यूँ ही चलता रहे।

5.
रोज़ की तरह
सूरज आज भी
पूरब से ही निकला था।
बादल घने हो रहे थे आकाश में
हवाएँ इतनी मतवाली हो रही थी
जैसे सब कुछ ले लेना चाहती हो
अपने आगोश मे।

एक उफनती नदी की ओर इशारा करके
उसी दिन
मुस्कुराकर कहा था तुमने-

“पार कर सकते हो इसे मेरे लिए,
मैं मिलूँगी वहाँ तुम्हें- उस पार”
तुम्हारी मुस्कान को अपनी आँखों मे बंद कर
जाने कितने अरमान लिए
उतर गया उस चढ़ती नदी में
तभी समय की धार ने
अपना रूप बदला अचानक
मैं बाहर-बाहर तैर रहा था
लेकिन मेरे भीतर कुछ डूब रहा था शायद।
जब दोनों किनारे बराबर दूरी पर थे
मैं तब तक होश में था
फिर क्या हुआ कुछ याद नहीं।

जब मेरी आँख खुली
मैं दूसरे किनारे पार था
पर तुम नहीं थी वहाँ।

समय की वो उफनती नदी
इतनी पागल हो रही थी कि
मुंकिन नहीं था लौटना भी
हवाओं ने ले लिया था सब कुछ
अपने आगोश में
और मेरा सूरज
ढल रहा था उस दिन
दोपहर में ही धीरे-धीरे।

6.
न तुम कुछ भी बोले न हम कुछ भी बोले
तुम्हारी भी ज़िद थी हमारी भी ज़िद थी
तड़पते रहे राज़-ए-दिल पर न खोले
तुम्हारी भी ज़िद थी हमारी भी ज़िद थी

तन्हा सफ़र था तुम्हारा भी उस दिन
तन्हा सफ़र था हमारा भी उस दिन
सफ़र में थे दोनों अकेले अकेले
तुम्हारी भी ज़िद थी हमारी भी ज़िद थी

मिली जब भी नज़रें तो नज़रें चुरा ली
उठी जब भी लहरें तो दिल में दबा ली
सुबकते रहे दोनों दिल हौले हौले
तुम्हारी भी ज़िद थी हमारी भी ज़िद थी

बुलाती रही हमको ठंढी हवाएँ
करते रहे अनसुनी वो सदाएँ
बुलाता रहा हमको रंगीं नज़ारा
समझ ना सके हम समय का इशारा
कहता है दिल आज जी भर के रो ले
तुम्हारी भी ज़िद थी हमारी भी ज़िद थी

बेवजह हसरतों को छुपाते रहे हम
हर एक फासले को सजाते रहे हम
छुपाते रहे दर्द अपनी हँसी में
बताया किसी को कभी ना किसी ने  
ऐ काश कि आ भी जाता वो लम्हा
न हम होते तन्हा न तुम होते तन्हा
यादों के गुल बन गए अब हैं शोले
तुम्हारी भी ज़िद थी हमारी भी ज़िद थी।

7.

कल शाम हवाओं से
एक संदेशा भेजा था तुम्हें,
मिला होगा शायद ।

या शायद ना भी मिला हो
हवाएँ आजकल मेरा कहा नहीं मानती।

तुम्हें याद होगा
पहले मैं कितनी बाते किया करता था हवाओं से
और वो भी मेरे साथ खेला करती थी सारा दिन
जब तुम गाते गाते कहीं छुप जाती थी
तो हवाएँ ही तो थीं
जो तुम्हारे गीतों को मुझ तक ले आती थीं
फिर कैसी ख़ुशबू सी बिखर जाती थी मेरे इर्द-गिर्द
उसके बाद तो पूरा हर ही उनका था।
मेरे इशारे पर कैसे हवाएँ बिखरा देती थी
तुम्हारे गेसूओं को.......याद है ?
फिर तुम उन्हें ठीक करती
और मैं तुम्हें एकटक देखा करता
...यह भी याद होगा तुम्हें ।
लेकिन तुम्हारे बाद …….

तुम्हारे बाद तो
ये हवाएँ मेरा कहा एकदम नहीं मानती ।
अब कल की ही बात देखो
बालकनी पर तुम्हारे पसंदीदा फूल का गमला लगाया था
हवाओं ने गिरा दिया उसे
बहुत दर्द हुआ मुझे
तुमने भी तो महसूस किया होगा
...और आज दीवार पर लगी सारी तसवीरों को उलट कर रख दिया।

मुझे मालूम नहीं
तुम्हारे पास मैं उनकी शिकायत कर रहा हूँ या अपनी
पर इस बार मिले तो समझा देना उन्हें
पहले जैसी सरगोशियाँ न करती हो तो न करे
पर ऐसा खेल तो न खेले मेरे साथ
...तकलीफ़ होती है ।

तुम समझाओ तो शायद मान जाएँ
हवाएँ आजकल मेरा कहा नहीं मानती।


8.
मेरा खोया हुआ कुछ वक़्त
आज मुझे एक लिफ़ाफ़े में बंद मिला
एक तस्वीर और कुछ अल्फ़ाज़ों के साथ ।

फिर तो मैं खो सा गया
और खोता ही चला गया
पहली बार ऐसा महसूस हुआ
कि खुद को पाने के लिये
खुद को खोना पड़ता है ।

एक कमरा जो बंद था सालों से
अपने दिल पे हाथ रखा तो खुल गया
इतनी ख़ुशबू कैद थी यहाँ
मुझे मालूम न था ।

बिस्तर की सलवटें इतनी ताज़ा थीं
जैसे अभी-अभी कोई सोकर उठा हो
एक किताब के पन्ने का मुड़ा हुआ कोना
अपने पढ़ने वाले का इंतज़ार कर रहा था
वॉश-बेसिन पर एक साबुन अभी तक भीगा हुआ था
और टेबल पर रखी चाय की प्याली अब तक गर्म थी
आईने के पास रखी भीगी हुई कंघी में
एक लंबा सा बाल अब तक अटका हुआ था
और काजल की डिबिया अभी भी खुली पड़ी थी
गौर से निहारा जब मैंने आईने को
तो देखा कि उसके भीतर का चेहरा
मेरा नहीं था ।

मैंने घबराकर कमरा बंद कर दिया
और अपना ध्यान बंटाने के लिये
एक फूल तोड़ लाया आँगन से
मुड़ के देखा तो फूल की वो शाख
बहुत देर तक हिलती रही
और मैं बहुत देर तक चुपचाप खड़ा रहा ।

             

9.
तुम्हारे जाने के बाद
जो सूनापन आया है
मेरी तनहाई
उसके साथ खेलती रहती है अक्सर।

मेरी खामोशी से जब कभी
घर का खालीपन गहराने लगता है
मेरी तनहाई कुछ पुराने गीत
गुनगुनाने लगती है
फिर मैं आदमकद आईने में देखता हूँ –
एक गुमशुदा चेहरा
और गौर से सुनता हूँ वो गीत
जो गाये गए थे कभी यहाँ
कुछ इस तरह
तार सप्तक में कि उसकी गूंज
अब भी मुझे
साफ साफ सुनाई देती है।


घर जितना खाली-खाली होता है
आवाजें उतनी ही ज्यादा गूँजती हैं वहाँ।

गीत ही क्यों
और भी ढेर सारी
रोज़ कि बातें
हर एक शै में
बस गई हैं कुछ इस तरह
कि क्या कहूँ ?
चॉकलेट का रैपर
मैंने डस्टबीन में नहीं डाला
         तो आवाज़ आई 
मैंने तौलिया ठीक जगह पर नहीं रखा
         तो आवाज़ आई
ऑफिस जाते समय जब कभी
बेमेल कपड़े पहने
         तो आवाज़ आई
दवाइयाँ लेना भूल गया कभी
         तो आवाज़ आई
बारिश मे भीग कर आया कभी
         तो आवाज़ आई
क्या करूँ ?
वो आवाज़ मेरा पीछा ही नहीं छोड़ती
पर वो आवाज़ थोड़ा सुकून भी देती है।
लेकिन कुछ पल का वो सुकून
मुझे रह रहकर बेचैन करता है
और मेरे भीतर का कोलाहल
बाहर नहीं आ पाता।

पसरा रहता है सन्नाटा
सारे घर में
सारा दिन
टूटता है सन्नाटा तभी
जब सिसकियाँ बेकाबू हो जाती हैं।


10.
गलता रहा मोम
और बाती भी जलती रही
कोई हलचल या शोर नहीं
बस नीरवता ही थी वहाँ
जो इस घटना की साक्षी थी।

मोम जलाता था बाती को
या बाती उस धवल मोम को
पता नहीं
पर कायम था एक रिश्ता –
रोशनी का।

नीरवता तो अभी भी वहाँ
बस रोशनी नहीं है
और सतह से चिपका हुआ
यह जो अवशेष है
शायद मोम है
पर मेरी बाती
तुम कहाँ हो ?